Krishna Sudama Vyang Lyrics Shri Krishna Bhajan Song

Sudama_krishna1

Mp3/Lyrics Title Name : Shri krishna ,Sudama ,sudama’s wife,Shri Krishna ka dwarpaal, varta jay shri krishna Tv show serial by Ramanand Sagar

Singer Name : ravindra Jain

Published Year : 1988

File Size : 9 MB

Time Duration : 9.58 MIn


View Hindi Lyrics

विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम। भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति। सलज सुशील सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥
कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र। करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥

(सुदामा की पत्नी)
लोचन-कमल, दुख मोचन, तिलक भाल,
स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं।
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं।
विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास,
तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय,
द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥

(सुदामा)
सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहाँ अब देति है सिच्छा।
जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा॥
मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
औरन को धन चाहिये बावरि, ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥

(सुदामा की पत्नी)
कोदों, सवाँ जुरितो भरि पेट, तौ चाहति ना दधि दूध मठौती।
सीत बितीतत जौ सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटी कठौती॥

(सुदामा)
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै झक ठानी।
जातहि दैहैं, लदाय लढ़ा भरि, लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥
पाँउ कहाँ ते अटारि अटा, जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी।
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौ, काहु पै मेटि न जात अयानी॥

(सुदामा की पत्नी)
विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु,

लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार,
लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु,
तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं।
नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो,
देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि हैं॥

(सुदामा)
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै झक तेरे।
जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुख, जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ, भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारि तै देखु बिचार कै, भेंट को चारि न चाउर मेरे॥

यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसी पास। पाव सेर चाउर लिये, आई सहित हुलास॥
सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बाँधि दुपटिया खूँट। माँगत खात चले तहाँ, मारग वाली बूट॥

दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई,
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बात,
देवता से बैठे सब साधि-साधि मौन हैं।
देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँय,
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
धीरज अधीर के हरन पर पीर के,
बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैं?

(श्रीकृष्ण का द्वारपाल)
सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा॥
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥

बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनि,
छाँड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय,
भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने को?
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधु,
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने को?

ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥

(श्री कृष्ण)
कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत। चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥

आगे चना गुरु-मातु दिये त, लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥

देनो हुतौ सो दै चुके, बिप्र न जानी गाथ। चलती बेर गोपाल जू, कछू न दीन्हौं हाथ॥
वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की भाँति। यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जाति॥
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज। कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥
हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि। कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ सकेलि॥

वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥

कनक-दंड कर में लिये, द्वारपाल हैं द्वार। जाय दिखायौ सबनि लैं, या है महल तुम्हार॥
टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर, तामैं परो दुख काटौं कहाँ हेम-धाम री।
जेवर-जराऊ तुम साजे प्रति अंग-अंग, सखी सोहै संग वह छूछी हुती छाम री।
तुम तो पटंबर री ओढ़े किनारीदार, सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पै, विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरी?

कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥

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