Karan Laage Mohan Ab Chori | Krishna Bhajan | Kripaluji Maharaj Bhajan | करन लागे मोहन अब चोरी

Karan Laage Mohan Ab Chori | Krishna Bhajan | Kripaluji Maharaj Bhajan | करन लागे मोहन अब चोरी

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Title : Karan Laage Mohan Ab Chori | Krishna Bhajan | Kripaluji Maharaj Bhajan | करन लागे मोहन अब चोरी
Published By: Radha Krishna Mandir Cuttack
Date: 2020-08-18 03:07:18
Category: #Krishna Bhajan
Label: Youtube
Video Duration : 00:17:52
Download Now: MP3 | MP4 | M4A


Songs Info :There are very beautiful bhajans Karan Laage Mohan Ab Chori | Krishna Bhajan | Kripaluji Maharaj Bhajan | करन लागे मोहन अब चोरी that will hear you become disturbed, many such Bhajans are available in Bhaktigaane, listen to yourself and also tell others and share them together to help us

Songs Info : बहुत ही सुन्दर Karan Laage Mohan Ab Chori | Krishna Bhajan | Kripaluji Maharaj Bhajan | करन लागे मोहन अब चोरी भजन हैं जिसे सुनकर आप भाव विभोर हो जायेंगे ऐसे ही बहुत सारे भजनो का संग्रह हैं भक्तिगाने में मिलेगा , खुद भी सुने और दुसरो को भी सुनाये और साथ में शेयर कर हमें सहयोग प्रदान करे



Written and Composed by Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj
Prem Ras Madira – Krishna Baal Leela Madhuri
करन लागे मोहन अब चोरी।
(एक सखी अपनी अंतरंग सखी से कहती है कि अरी सखी ! नंद का लाला तो अब चोरी करना भी सीख
गया है,)
परम-स्वतंत्र न डर काहू सों,सब सों बरजोरी॥
(उसको कोई रोकने वाला नहीं है, न वह किसी से डरता है। सदा ही बरबस सबसे बरजोरी करता रहता है ।)

मास-पिण्ड नहिं लोग कह, गुण बिहीन इन देह ।
(अरी सखी! महात्मा लोगों से सुना है कि उसकी देह में वास्तव में रक्त-मांस आदि नहीं है वरन् उसकी देह तो गुणहीन है।)
कूट कूट कर कूट बुधि, भरी मरम सखि ! येह ।
(मेरी समझ में तो छलकपट से भरी हुई बुद्धि होने के कारण ही उसे गुणहीन अर्थात् अवगुणों से युक्त कहा है ।)
धूत करतूतहिं सुनु गोरी ॥
(अरी सखी ! सुन, मैं उसकी धूर्तता सुनाती हूँ।)

सोती थी मैं एक दिन, करिके बन्द किवार ।
(एक दिन मैं चारों ओर से किवाड़ बन्द करके सो रही थी)
ना जाने कित सों धँस्यौ, भोरेहिं नन्दकुमार ॥
(पर वह जादूगर न जाने किधर से भीतर घुस आया)
जगाई मोकों झकझोरी।
(और मुझे झकझोरते हुए जगा दिया ।)

उठी तमकि बोली ‘अरे ! रैनहुँ नींद न तोय ?।
(नींद पूरी न होने के कारण मैं बड़े क्रोध में उठ कर बोली, ‘अरे छलिया ! क्या तुझे रात में भी नींद नहीं आती ?)
अरी ! तोय टेरति सखी, खरी पौरिया कोय’ ॥
(तब उसने कहा, ‘अरी सखी ! तेरे द्वार पर खड़ी हुई बड़ी देर से तेरी कोई सखी तुझे बुला रही है, इसलिए तुझे मैंने जगाया है।)
गई मैं देखन को दोरी।
(उसके कहने पर विश्वास करके मैं उस सखी को द्वार पर देखने गयी ।)

हेला देत उतै थकी, सखी न कोऊ द्वार।
(द्वार पर पुकारते-पुकारते थक गयी किन्तु वहाँ जब कोई सखी हो तब तो बोले ।)
लखी इतै नवनीत हरि, खात दुहुँन कर डार॥
(मैं खीझकर जब वापस लौटी तब क्या देखा कि वह छलिया दोनों हाथों से मक्खन निकाल-निकाल कर खा रहा है ।)
देखि मोहिं मटुकीहू फोरी।
(मुझे देखते ही उसने मटकी भी गिराकर फोड़ दी।)

दौरि पकरि कर ले चली, यशुमति ढिग रिस लाग ।
(तब तो मैं अत्यन्त ही क्रुद्ध होकर तत्क्षण ही उसे पकड़कर यशोदा के पास ले गयी)
टेरि कही ‘लखु लाल के, गुन माखन मुख दाग’ ।
(और यशोदा से कहा कि अपने लाला के गुण देख लो। मुख में मक्खन लगा हुआ देखकर भी क्या अब विश्वास न करोगी?)
न मानत कबहूँ तू भोरी।
(हे यशोदाजी ! तुम अत्यन्त ही भोली हो जो आज तक हमारी बातों को नहीं मानती थीं।)

अरी वीर ! पुनि का कहूँ ?, सो जादूगर राय ।
(अरी सखी ! फिर क्या बताऊँ वह जादूगरों का सम्राट)
मम ‘कृपालु’ पति-रूप धर, मैं अति गई लजाय ॥
(कृपालु’ कहते हैं कि मेरा पति बन गया और मैंने जब मुड़कर देखा तो लाज के मारे हाथ छोड़कर भाग खड़ी हुई ।)
भजी मैं हँसी भई मोरी ।
(सारे गाँव में मेरी हँसी उड़ी।)

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